सप्ताहांत: ऑनलाइन शिक्षा व बच्चों में संस्कारों का हनन

online education coronavirus

कोरोना, भारत-चीन सीमा विवाद, विकास दुबे और राजस्थान में राजनीतिक उठापटक के बीच हम एक ऐसे विषय को भूल गए जो इस समय बहुत प्रासंगिक है। वह है बच्चों में नीति व सांस्कृतिक संस्कारों का पोषण। लॉक डाउन की वजह से व बाद में अनलॉक डाउन के समय में भी छोटे बच्चों को एवं बड़े विद्यार्थियों को भी ऑनलाइन शिक्षा दी जा रही है। ऑनलाइन शिक्षा का जितना लाभ है उससे ज्यादा उसके दुर्गुण भी हैं। ऑनलाइन शिक्षा के लिए बच्चों को मोबाइल, कंप्यूटर, लैपटॉप, आईपैड आदि का सहारा लेना पड़ता है और उसकी वजह से वह जो कुछ सीखता है उसके अलावा वह भी सीखता है जो उसे नहीं सीखना चाहिए। आज हमारा सप्ताहांत इसी विषय पर है।

क्या हम अनुशासित, नीतिवान पीढी का सृजन कर रहे हैं? आज का यह विषय अत्यंत सामयिक और प्रासंगिक तो है ही, वर्तमान स्थिति में जो भारतीय संस्कृति का क्षरण हो रहा है एवं माता-पिता व बच्चों के बीच में जो दूरियां बढ़ रही हैं उनको भी रेखांकित करने का एक प्रयास है। हमें यह देखना है कि जो संस्कार हमारे माता-पिता ने हमारे अंदर रोपित किए, क्या वही संस्कार हम अपने बच्चों में प्रवेश करा पा रहे हैं या नहीं।

एक श्रेष्ठ पुरुष में ये 8 गुण अपेक्षित होते हैं:

अष्टौ गुणा पुरुषं दीपयंति, प्रज्ञा सुशीलत्वदमौ श्रुतं च।
पराक्रमश्चबहुभाषिता च, दानं यथाशक्ति कृतज्ञता च॥

भावार्थ: आठ गुण पुरुष को सुशोभित करते हैं – बुद्धि, सुन्दर चरित्र, आत्म-नियंत्रण, शास्त्र-अध्ययन, साहस, मितभाषिता, यथाशक्ति दान और कृतज्ञता॥

इस संबंध में मुझे एक संस्मरण याद आता है। मेरे घर पर सत्यनारायण भगवान की कथा हुई। जिसमें वृद्ध पंडित जी आए। कथा समाप्त होने के बाद उन्होंने मुझसे कहा, बेटा जब मैं आया तो तुम दरवाजे पर खड़े थे, न भी खड़े मिलते तो मैं कॉल बैल बजा कर आपको बुला लेता और आ जाता। फिर जब मैं अंदर आया तो आपने और आपके पूरे परिवार ने मेरे चरण स्पर्श किए, आप न भी करते तो मैं क्या कर लेता, फिर आपने मेरे से जल पीने को पूछा, आप न भी पूछते तो मुझे प्यास लगती तो मैं मांग लेता। यह बहुत अच्छे संस्कार हैं ।
मैं खुश हुआ पर पंडित जी बोले लेकिन बेटा तुझे खुश होने की आवश्यकता नहीं है। यह संस्कार तो तुम्हारे पिताजी ने दिए हैं। मैं तुम्हारी नहीं, तुम्हारे पिताजी की तारीफ कर रहा हूं कि वह कितने अच्छे थे, उन्होंने तुम्हारे अंदर इतनी अच्छे संस्कार, भारतीय संस्कृति की नीतियों को रोपित किया है। क्या तुम भी अपने बच्चों में ऐसा ही कर रहे हो? यह तुम देखना और अगली बार जब मैं तुम्हारे बेटे के यहाँ कथा करने आऊंगा तब मैं तुमको बताऊंगा।

पंडित जी का यह आकलन बिल्कुल सही था और यह हमेशा मुझे याद रहता है। मैं मानता हूं कि मेरे माता पिता और मेरे माता-पिता के माता-पिता के बीच में केवल एक पीढ़ी का अंतर था लेकिन मेरे और मेरे बच्चों के बीच में कम से कम 4 पीढ़ी का अंतर है क्योंकि सुविधाओं में चार गुना वृद्धि व सुधार हुआ है। बाजारीकरण व वैश्वीकरण ने संबंधों को ढहने पर मजबूर कर दिया है। पहले हमको छोटी-छोटी शिक्षा दी जाती थी कि बड़ों की तरफ पैर करके नहीं बैठना है, कभी बड़ों के सिरहाने नहीं बैठना है पैरों की ओर ही बैठना है, नमस्कार दोनों हाथ जोड़कर करना है। बड़ों के सामने हंसी मजाक नहीं करना है, आदि आदि। माता-पिता व बड़ों नित्यप्रति चरण स्पर्श करना है।

प्रातः काल उठ के रघुनाथा
मात पिता गुरु नावहिं माथा।

फिर पूजा पूजा पाठ करनी है, रामचरितमानस, हनुमान चालीसा का पाठ करना है, शाम को घर के मंदिर में दीपक जलाना है। गुरु जी को माता-पिता बच्चे को सौंप देते थे और कहते थे आज से यह आपका बच्चा हुआ, आप चाहे जैसे इस को ठोक पीटकर सही कर देना। लेकिन आज उल्टा है। यदि शिक्षक विद्यार्थी से जरा भी कुछ कह दे तो तुरंत FIR हो जाती है।

मोबाइल, इंटरनेट, फेसबुक की वजह से भी बच्चों में माता-पिता वह संस्कार निरूपित नहीं कर पा रहे जो होना चाहिए क्योंकि वह जो भी कहते हैं वह अपने मोबाइल में लैपटॉप में व्यस्त हो जाते हैं। विद्यालयों में भी यही स्थिति है कि शिक्षक भी अपने मोबाइल में व्यस्त रहते हैं और वह केवल उतना पढ़ाते हैं जितना कि उनको पढ़ाना सिलेबस में आवश्यक है। संस्कृति का ज्ञान तो कोई भी नहीं दे रहा। ऐसे में जिम्मेदारी माता-पिता की हो जाती है कि बच्चे के हाव भाव में परिवर्तन पर पूरा ध्यान रखें। बच्चा कहाँ जा रहा है, कितने बजे लौट रहा है, देर से आ रहा है तो क्या कारण है, उसे विद्यालय में या विद्यालय के बाहर या परिवार के किसी सदस्य से कोई परेशानी तो नहीं है?

एक सुझाव और मैं देना चाहूंगा कि शाम का खाना सब को एक साथ मिलकर बैठकर खाना चाहिए तभी ज्ञात हो सकता है कि बेटा खाना कम खा रहा है या ज्यादा खा रहा है। कम खा रहा है तो क्यों खा रहा है, उसे कोई परेशानी तो नहीं है, ज्यादा खा रहा है तो उसको कोई बीमारी तो नहीं है। वह खाना खाते में आपसे किस तरह की बात कर रहा है, कैसा व्यवहार कर रहा है, यह आपको एक ही बार में ज्ञात हो जाता है। इसी दौरान बच्चों को अपने पिता जी, दादा जी के गुणों के बारे में चर्चा कर सकते हैं।

इसके अतिरिक्त दिन में कम से कम एक घंटे बच्चों को धार्मिक एवं सांस्कृतिक सद्भाव वाली पुस्तकें व समाचार पत्र पढ़ने को अवश्य कहना चाहिए और यह सब कार्य अपनी निगरानी में कराया जाना चाहिए।

निष्कर्षतः हम कह सकते हैं कि हम चाहते तो हैं कि बच्चों को नीतिवान बनाया जाए, संस्कारी बनाया जाए, उनको गुणों की खान बनाया जाए। लेकिन ऐसा प्रतीत होता है कि हम अपने प्रयास में शत-प्रतिशत नहीं, कुछ प्रतिशत ही सफल हो पा रहे हैं। अपने प्रयासों में और कुशाग्रता लाने की और सुधार लाने की आवश्यकता है। इसमें दोष बच्चों का नहीं बल्कि बच्चों के माता-पिता का ही है यदि बच्चे संस्कारित नहीं हो पाते हैं, यह उत्तरदायित्व उन्हीं का है।

– सर्वज्ञ शेखर
स्वतंत्र लेखक व साहित्यकार

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