सप्ताहांत: लोक संवाद में भाषा का गिरता स्तर
बिहार में आजकल विधानसभा चुनाव व कई राज्यों में उपचुनाव हो रहे हैं। चुनावी भाषणों में नेता मर्यादा की सीमा लाँघने में लगे हैं। ऐसा लग रहा है जैसे अभद्र व असंसदीय भाषा बोलने की प्रतियोगिता चल रही हो।
इस संबंध में एक पुराना छोटा प्रसंग याद आ रहा है –
एक बार एक राजा अपने सेनापति और सिपाही के साथ शिकार करने जंगल में गए। लेकिन अंधेरा होने पर रास्ता भटक गए। राजा ने देखा एक झोपड़ी में छोटा सा दीपक जल रहा है। वहां पहुंचे तो वहां पर एक नेत्रहीन साधु कुटिया में बैठे हुए थे। राजा ने पूछा “हे साधु महात्मा! कृपया मुझे यह बताने का कष्ट करें कि क्या यहां से आपने अभी किसी को जाते हुए देखा है” तो महात्मा जी ने जवाब दिया “हे राजन! अभी थोड़ी देर पहले यहां से आप के सेनापति गए थे जो कि पूर्व दिशा की ओर गए हैं और उसके बाद आपका सिपाही आया था जो उत्तर दिशा की ओर गया है।”
राजा ने महात्मा से प्रश्न किया, “हे महात्मा जी! आप तो नेत्रहीन हैं, आपको कैसे ज्ञात हुआ कि मैं राजा हूँ और मुझसे पहले जो आए थे वह सेनापति और सिपाही थे।” महात्मा जी ने जवाब दिया, “हे राजन! वाणी से पुरुष के व्यक्तित्व का आभास हो जाता है। आपने मुझसे इतने सम्मान पूर्वक संवाद किया, जो कि एक राजा ही कर सकता है। आप से पूर्व जो आए थे उन्होंने बात तो विनम्रता से की लेकिन उनकी बात में थोड़ी सी अकड थी। निश्चित रूप से वह आप के सेनापति होंगे। उससे पहले जो आए थे उन्होंने बडी अभद्रता से मेरे से पूछा, ऐ अंधे क्या जंगल से बाहर का बाहर जाने का रास्ता यही है। जो भाषा उन्होंने प्रयोग की एक सिपाही की थी।”
परँतु आजकल तो लगता है कि राजा से लेकर सिपाही सभी की भाषा एक सी हो गई है। राजा से तात्पर्य उन लोगों से है जो सत्ता के उच्च शिखरों पर बैठे हैं या मंत्री हैं, नेता हैं, अभिनेता हैं, साधु, संत आदि, जिन लोगों के बोलने से आम जनता पर प्रभाव पड़ता है। ऐसे अभिनेता जिनको लोग, विशेषकर युवा वर्ग अनुसरण करता है। उनके हिसाब से अपनी हेयर स्टाइल बनाता है, उनके हिसाब से अपने कपड़ों का चयन करता है। ऐसे अभिनेता यदि गंदी बात करने लगेंगे तो निश्चित रूप से युवा वर्ग पर गलत असर पड़ेगा ही। इसी प्रकार वह नेता लोग जिनकी एक आवाज पर लाखों लोग एकत्र हो जाते हैं, उनका अनुकरण करते हैं, यदि गंदी भाषा बोलेंगे, अपने संवाद में महिलाओं को रखैल, आइटम, टंच माल, सरकारी विधवा बोलेंगे तो आम जनता पर वैसा ही असर पड़ता है। उनकी अभद्र भाषा पर भी लोग ताली बजाने लगते हैं।
जब जब चुनाव आते हैं, चुनावी भाषणों में भाषा का स्तर बहुत गिर जाता है। जिन से संयमित भाषा की अपेक्षा की जाती है वह भी चुनावों में भाषा को निम्न स्तर पर ले आते हैं और चुनाव के बाद यह कह कर पल्ला झाड़ लेते हैं कि वह तो राजनीतिक भाषण थे। तो क्या राजनीतिक भाषणों में यह जरूरी है कि किसी को मौत का सौदागर, जर्सी गाय, तड़ीपार, पप्पू या अनेक प्रकार के ऐसे नामों से संबोधित किया जाए जो अमर्यादित हों। बिल्कुल नहीं, यह राजनीति है जोकि एक दिशा प्रदान करती है और यदि राजनीतिक नेतृत्व गलत दिशा प्रदान करेगा तो देश का क्या हाल होगा इसका भगवान ही मालिक है। सवाल करने वाले हर व्यक्ति को देशद्रोही, आतंकी, पाकिस्तानी कह देना भी आम बात हो गई है।
इसी प्रकार समाचार चैनलों पर जो बहस होती है उनमें भी भाषा का स्तर शोचनीय हो गया है। बड़े-बड़े राष्ट्रीय दलों के अनुभवी प्रवक्ता भी मर्यादा की सीमाओं का निम्न स्तर तक उल्लंघन करने लगते हैं। यहाँ तक कि व्यक्तिगत प्रहार व राजनेताओं का चरित्र हनन करने से भी नहीं चूकते।
नीति वचनों में कहा गया है –
वाणी रसवती यस्य,यस्य श्रमवती क्रिया ।
लक्ष्मी : दानवती यस्य,सफलं तस्य जीवितं ।।
अर्थात:- “जिस मनुष्य की वाणी मीठी है, जिसका कार्य परिश्रम से युक्त है, जिसका धन दान करने में प्रयुक्त होता है, उसका जीवन सफल है।”
“बाजूबंद पुरुष को शोभित नहीं करते और न ही चन्द्रमा के समान उज्ज्वल हार, न स्नान, न चन्दन, न फूल और न सजे हुए केश ही शोभा बढ़ाते हैं। केवल सुसंस्कृत प्रकार से धारण की हुई एक वाणी ही उसकी सुन्दर प्रकार से शोभा बढ़ाती है। साधारण आभूषण नष्ट हो जाते हैं, वाणी ही सनातन आभूषण है।”
जो लोग वाणी को आभूषण की तरह नहीं वरन दुधारी तलवार की भांति प्रयोग करके सामाजिक सौहार्द को तहस नहस कर रहे हैं उनका हमको बहिष्कार, तिरस्कार करना होगा। चुनाव आयोग को भी कार्यवाही करनी चाहिए। तभी इन्हें अकल आएगी और शायद सुधर भी जाएँ।
– सर्वज्ञ शेखर