निर्दोषों को सजा का अमानवीय पहलू
पिछले सप्ताह आगरा के अपर जिला जज ज्ञानेंद्र त्रिपाठी ने पांच वर्षों से जेल में बंद बाह क्षेत्र के जरार निवासी दंपती को मासूम की हत्या के मामले में बेगुनाह पाते हुए रिहा करने का आदेश दिया। पुलिस ने इन्हें जेल भिजवा दिया था, जबकि हत्या किसी और ने की थी। अदालत का यह भी आदेश है कि जांच अधिकारी के खिलाफ कार्रवाई की जाए और फिर से जांच कर असली हत्यारों का पता लगाया जाए।
इस घटना ने एक बार फिर न्याय व्यवस्था की उन खामियों की ओर इशारा किया है जो न्याय के उस स्थापित सिद्धांत के विपरीत हैं कि चाहे सौ दोषी बच जाएं पर एक भी निर्दोष को सजा न मिले। ऐसी अनेक घटनाएं सामने आने लगी हैं जिनमें निर्दोष जेल की सजा भुगत रहे हैं व दोषी खुलेआम घूम रहे हैं। हालांकि यह भी सच्चाई है कि न्यायालयों की सतर्कता से ही ये निर्दोष बाद में सजामुक्त हो कर छूट भी जाते हैं।लेकिन तब तक निर्दोष लोगों की समाज व परिवार में प्रतिष्ठा, आत्मसम्मान का न भरपाई वाला नुकसान हो चुका होता है। निर्दोष होते हुए भी कानूनी लड़ाई लड़ने में उनकी जमीन जायदाद, गहने आभूषण बिक जाते हैं, बच्चों के शादी विवाह रुक जाते हैं, सदमे के कारण परिजन मौत को गले लगा लेते हैं।
इस तरह की कुछ दुर्भाग्यपूर्ण घटनाओं पर दृष्टिपात करें तो आगरा के ही फतेहपुर सीकरी के उंडेरा गांव में 2009 में हुई एक हत्या के मामले में तीन निर्दोष 8 साल तक जेल में रहे। एक बेटे ने जमीन के विवाद में अपने माता-पिता की हत्या कर दी थी परंतु हत्यारे ने साजिश करके अपने बड़े भाई, भाभी व एक दोस्त को फँसवा कर सजा करा दी। न्याय मिलने में 8 साल लगे।एक और मामले में सुप्रीम कोर्ट ने अपने 10 साल पुराने फैसले को पलटते हुए बड़ा फैसला सुनाया था। साल 2009 में कोर्ट ने हत्या, डकैती और सामूहिक बलात्कार के एक मामले में छह लोगों को दोषी करार देते हुए मौत की सजा सुनाई थी। कोर्ट ने अपने फैसले पर रोक लगाते हुए सभी छह आरोपियों को बरी करने का आदेश दिया ।कोर्ट ने मामले में एक बार फिर जांच के आदेश देते हुए कहा, इस मामले में उन तमाम अधिकारियों का पता लगाया जाए जिनकी वजह से असली दोषी बच निकले।
कोर्ट ने कहा, “मामले में जब सजा सुनाई गई तब एक नाबालिग समेत सभी आरोपी 25 से 30 साल के थे, गलत फैसले की वजह से इन्हें जेल में अपने अहम साल गंवाने पड़े। इनके परिवार ने भी काफी प्रताड़ना झेली। इसलिए इस मामले में तथ्यों और परिस्थिति को देखते हुए संविधान के अनुच्छेद 142 के तहत अपनी शक्तियों का प्रयोग करते हुए हम महाराष्ट्र सरकार को प्रत्येक व्यक्ति को पांच लाख रुपये मुआवजा देने का आदेश देते हैं।”
गाजियाबाद में 2017 में तीन जवान बेटों को फांसी की सजा मिली तो बूढ़ा बाप सदमा नहीं झेल पाया और पूरी दुनिया को अलविदा बोल दिया। हत्या का कलंक हटाने में सवा साल लग गए और न्याय की जीत हुई। हाईकोर्ट की डबल बेंच ने चारों लोगो को बाइज्जत बरी कर दिया।
ये तो कुछ घटनाएं हैं जो नजर में हैं। ऐसे अनेक मामले हैं जब न्याय के लिए जिम्मेदार व्यवस्था ही अन्याय करके निर्दोषों को सजा दिलवाती है। फिर इसमें चाहे पुलिस हो या अन्य।सच्चाई यही है कि न्यायालय में तो मामला बहुत बाद में पहुंचता है। उससे पूर्व तो इस तरह के मामलों में कभी अपने आप को बचाने या अपना गुडवर्क दिखाने या किसी भी दवाब में पुलिस और विवेचना अधिकारी चार्जशीट में आरोप तय कर निर्दोष को फंसा देते हैं। इन्हीं तथ्यों के आधार पर न्यायालय सजा भी सुना देता है। जो गरीब हैं, अक्षम हैं वो कुछ नहीं कर पाते, पर जो सक्षम हैं वो सजा के विरुद्ध अपील करके किसी प्रकार अपने को मुक्त करवा लेते हैं, पर तब तक बहुत देर हो चुकी होती है। यह अन्याय तो है ही, अमानवीय भी है। ऐसी घटनाएं बिलकुल न हों या कमसेकम हों ऐसे प्रयास करना बहुत जरूरी है।
– सर्वज्ञ शेखर
स्वतंत्र लेखक, साहित्यकार