अब और कोई विकास दुबे पैदा न हो

Sarwagya Shekhar Gupta
लेखक – सर्वज्ञ शेखर

कानपुर के बदमाश विकास दुबे के मारे जाने के बाद जो मुख्य प्रश्न उत्पन्न हुए हैं या जिन बातों पर आजकल मुख्य रूप से चर्चा की जा रही है, जैसे खाकी और खादी का संपर्क या मेलजोल या गठजोड़ या विकास कैसे अपराधी बना, उन सब विषयों पर हम चर्चा नहीं करना चाह रहे। हम इनसे भी आगे बढ़ कर कुछ महत्वपूर्ण बातें हैं जिन पर चर्चा करेंगे।

विकास दुबे काँड ने एक बार फिर तीन बिंदुओं पर प्रकाश डाला है। वह हैं, प्रथम हमारी न्याय व्यवस्था, द्वितीय चुनाव सुधार और तृतीय पुलिस सुधार।

हैदराबाद में जब एक महिला डॉक्टर के साथ जघन्य बलात्कार व हत्या काँड हुआ था उसके उपरांत पुलिस ने चारों बलात्कारी अपराधियों को मौत के घाट उतार दिया था। तब पुलिस की बहुत जय जयकार हुई थी, उन पुलिसकर्मियों पर फूल बरसाए गए थे और हीरो की भाँति उनका स्वागत किया गया था यद्यपि वह भी गैर कानूनी कार्य था। लेकिन जनता में यह विश्वास बड़ी तेजी से घर करता जा रहा है कि यदि किसी अपराधी को पकड़ कर उसे न्यायालय में पेश किया जाता है या उसके साथ कानून की लड़ाई लड़ी जाती है तो वह या तो बहुत लंबी चलती है या वह कानून की खामियों का फायदा उठाकर छूट जाता है या कम सजा पाता है। निर्भया कांड इस बात का ज्वलंत उदाहरण है। यद्यपि चारों बलात्कारियों को फांसी हुई, लेकिन फांसी लगने में कितना समय लगा और फांसी लगने से पहले कितने कानूनी दाँवपेच चले गए, यह सभी जानते हैं। इसलिए आजकल एक आम धारणा बनती जा रही है कि जो अपराधी है और जिसका अपराध लगभग सिद्ध हो गया है, उसको तो मौत के घाट उतार देना चाहिए। भारत की जनता बहुत संवेदनशील और भावुक है। वह इस तरह के त्वरित न्याय से तुरंत खुश हो जाती है, फिर भले ही यह कार्य कानून सम्मत हो या ना हो।

इसके बाद दूसरा प्रश्न आता है चुनाव सुधारों का। यह देखा गया है कि अक्सर कमजोर प्रत्याशी चुनाव में जीतने के लिए बाहुबलियों, गुंडों, बदमाशों की सहायता लेते हैं। जीत जाते हैं तो बाद में उन को संरक्षण प्रदान करते हैं और जब उनको राजनीतिक संरक्षण प्राप्त हो जाता है तो उनके अपराध का वैसा ही विकास होता है जैसा कि विकास दुबे का हुआ। चुनाव आयोग को या सरकार को ध्यान देना होगा कि चुनाव कानून में कुछ इस तरह से सुधार किए जाए कि कोई भी बाहुबली या अपराधी प्रत्याशी न बन पाए और न उनके परिवार का कोई भी। क्योंकि यह देखा गया है कि बाहुबली या अपराधी या सजायाफ्ता तो प्रत्याशी नहीं बनता है लेकिन वह अपनी पत्नी को, अपने भाई को या अपने परिवार के किसी भी सदस्य को चुनाव लड़ा कर जिता देता है और असली जीत अपराधी की होती है।

तो सरकार को या चुनाव आयोग को ऐसा कुछ करना होगा कि अपराधी, बाहुबली, बदमाश न तो खुद चुनाव लड़ सके और न अपने किसी परिजन को चुनाव लड़ा सके। तभी अपराधियों का राजनीति से संबंध समाप्त हो पाएगा।

अंतिम व तीसरा बिंदु है पुलिस सुधार का। अक्सर यह कहा जाता है कि पुलिसकर्मियों को बहुत कम वेतन मिलता है और उनको सुविधाएं भी बहुत कम मिलती हैं। इसीलिए वे रिश्वत का सहारा लेते हैं या अपराधियों से सांठगांठ उनको मजबूरी में करनी होती है। यह अपराधी खाकी वालों को अलग से पैसे देते हैं, उनकी सारी सुविधाओं और शौक का ध्यान रखते हैं और बदले में अपने को संरक्षित करा लेते हैं। जैसा कि विकास कांड में भी हुआ। पुलिस सुधार के बहुत प्रयास हुए हैं लेकिन हमको पुलिस की व्यवस्था में उस स्तर तक सुधार करने पड़ेंगे कि वह आत्मनिर्भर हो जाए और उनको मजबूरी में भी किसी अपराधी की या किसी गुंडे की या किसी बाहुबली की शरण में न जाना पड़े।

एक दुर्दांत विकास का तो अंत हो गया अब ऐसा कुछ करना होगा कि कोई और विकास दुबे पैदा न हो। इसके लिए सरकार को, पुलिस को, राजनीति नेताओं को और हम सब को भी सतर्क रहना होगा। जिम्मेदारी सभी की समान ही है।

– सर्वज्ञ शेखर

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